आशाराम बापू

आशाराम बापू 
आशाराम 'अज्ञानी'और मूढ़ भी
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गीता बुध्दियोग मात्र नहीं अपितु एक सम्पूर्ण सद्ग्रन्थ है !
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गीता परमब्रह्म-परमेश्वर के पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्ण जी का अशेष अथवा सम्पूर्ण (गीता 7/2) ज्ञान वाला एक सम्पूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है जिसमें 'कर्म' एवं 'योग या अध्यात्म' और 'ज्ञान' (गीता 7/29) तीनों की ही जानकारी-प्रयोग-उपलब्धि और व्यवहार वाला संक्षिप्तता में सम्पूर्णता भरा एक सर्वश्रेष्ठ सद्ग्रन्थ है जिसमें जीव के साक्षात् दर्शन (गीता 15/10) एवं आत्मा-ईश्वर ब्रह्म-शिव का साक्षात् दर्शन (गीता 11/8) और परमात्मा-परमेश्वर के साक्षात् दर्शन व आवागमन अथवा जन्म-मृत्यु से मुक्ति और भगवत् प्राप्ति (4/9; 4/35 11/54/18) साथ ही साथ सभी प्रकार के संकटों एवं पाप-कुकर्मों से मुक्ति (18/58) शरणागत् और आज्ञापालन में रहने पर शोक रहित बनाते हुए पाप-मुक्ति देने की गारण्टी (18/66) आदि-आदि सम्पूर्ण शोक-सन्ताप हरण और मुक्ति-अमरता प्रदान करने वाला बशर्ते कि भगवत् प्राप्ति के साथ-साथ ही ईमान से संयमपूर्वक सेवाभाव सहित भगवद् शरण में रहा-चला जाय तो; एक सम्पूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है । 

समस्त लक्षणों वाले कर्म, योग और ज्ञान तीनों की जानकारियाँ-प्रयोग और व्यावहारिक सम्पूर्ण उपलब्धियों को प्राप्त कराने वाले सद्ग्रन्थ रूप 'गीता' के बारे में आशाराम द्वारा यह कहना कि -- कुछ लोग कहते हैं कि गीता निष्काम कर्म योग का समावेश है और कुछ लोग कहते हैं कि गीता पूर्ण योग है किन्तु यानी आशाराम द्वारा गीता बुध्दियोग है । यह बुध्दि के साथ योग कराने वाला सद्ग्रन्थ है । -- ऐसा कहना घोर अज्ञानता और मूढ़ता से युक्त है क्योंकि गीता को मात्र बुध्दि से जोड़ देने को घोर अज्ञानता और मूढ़ता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ? जबकि गीता की वास्तविकता सम्पूर्ण कर्म (शरीर-संसार के मध्य वाला), सम्पूर्ण योग-अध्यात्म (जीव और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के मध्य वाला) और परमब्रह्म-परमेश्वर के ज्ञान यानी सम्पूर्ण ज्ञान रूप तत्तवज्ञान रूप मोक्ष देने वाले भगवान् वाला ज्ञान ग्रन्थ 'गीता' है । आशाराम का यह कथन ऐसा ही है जैसे जनमानस को राष्ट्रपति महोदय को जनाने-मिलाने के सम्बन्ध में उनके स्थान पर किसी ग्राम सभापति का गुण-गान गाया जाय और यह कहा जाय कि यह ग्राम सभापति ही राष्ट्रपति है । क्या इससे जाहिर नहीं होता कि ऐसा जनाने वाला राष्ट्रपति के विषय में कुछ भी नहीं जानता ? क्या गीता मात्र बुध्दि से ही जोड़ने वाली है ? क्या गीता जीव एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म- ख़ुदा-गॉड-भगवान् तीनों को ही यर्थाथत: पृथक्-पृथक् साक्षात्-दिखाने वाले तत्तवज्ञान वाला सद्ग्रन्थ नही है ? 

परमाणु से परमेश्वर तक जिसके अन्तर्गत सारा ब्रह्माण्ड ही आ जाता है, की यथार्थत: जानकारी, साक्षात् दर्शन और उपलब्धियों को प्राप्त कराने वाले अशेष ज्ञान रूप सम्पूर्ण ज्ञान वाले सद्ग्रन्थ गीता को बुध्दि से योग कराने वाला ग्रन्थ कहना श्रीमद्भगवद्गीता जैसे सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्ताम और पवित्रतम् सद्ग्रन्थ को मात्र बुध्दि से मिलन कराने वाला ग्रन्थ कहकर श्रीमद्भगवद्गीता को सम्मानित किया जा रहा है या घोर अपमानित ? मेरी समझ में तो आशाराम ने अपनी घोर अज्ञानता और मूढ़ता का परिचय देते हुए सम्पूर्णता लिए हुए पवित्रतम् सद्ग्रन्थ गीता के प्रति धर्मभाव भगवद् जिज्ञासु जनता को दिग्भ्रमित करना और उसकी महत्ता को अपमानित करना हुआ । आशाराम मात्र एक कथावाचक है । वह क्या जाने कि गीता और भगवान् श्रीकृष्ण जी क्या हैं ? गीता और भगवान् श्रीकृष्ण जी को जानने के लिए उस तत्तवज्ञान की जानकारी अनिवार्य है जिसमें संसार--शरीर--जीव--आत्मा-ईश्वर शिव और परमात्मा-परमेश्वर-ख़ुदा-गॉड-भगवान --- इन पाँचों की ही पृथक्-पृथक् यथार्थत: जानकारियाँ साक्षात् दर्शन और बात-चीत सहित स्पष्टत: परिचय-पहचान समाहित रहता है ।

यह सत्य ही है कि तत्तवज्ञान रूप भगवद् ज्ञान रूप सत्यज्ञान के बिना भगवान् श्रीकृष्ण जी को देखना-पाना तो दूर रहा, जाना भी नहीं जा सकता है। ऐसे ही तत्तवज्ञान के बिना दुनिया के किसी भी पन्थ के किसी भी ग्रन्थ में स्थित सारगर्भित रहस्य जो जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं तथा इसकी जानकारी और दर्शन कराने वाला स्वाध्याय (सेल्फ रियलाइजेशन) एवं आत्मा-ईश्वर- ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-सोऽहँ-हँसो दिव्य ज्योति रूप शिव तथा इसकी जानकारी और दर्शन कराने वाला योग-साधाना अथवा अधयात्म (स्प्रिच्युलाइजेशन) और परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रह्म-ख़ुदा-गॉड-भगवान् तथा इनकी जानकारी-दर्शन और बात-चीत सहित स्पष्टत: परिचय-पहचान कराने वाला तत्तवज्ञान (True Supreme and Perfect KNOWLEDGE) को पाना और बात-चीत सहित देखना तो दूर रहा, जाना भी नहीं जा सकता; फिर तो इन पर भाषण-कथा-प्रवचन कैसे किया-दिया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया-दिया जा सकता है । कदापि नहीं किया-दिया जा सकता है ।

आशाराम को परमात्मा-परमेश्वर तथा उनकी प्राप्ति-जानकारी वाले तत्तवज्ञान के बारे में तो कुछ भी जानकारी है ही नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के बारे में भी प्राप्ति दर्शन जानकारी वाले योग-अध्यात्म के बारे में भी वे कुछ नहीं जानते । इतना ही नही, यहाँ तक कि उन्हें जीव और जीव के प्राप्ति दर्शन -जानकारी वाले स्वाध्याय के बारे में भी कोई कुछ भी जानकारी नहीं है। फिर तो परम रहस्य और परम गोपनीय (गीता 18/68) वाले श्रीमद्भगवद्गीता जैसे पवित्रतम् सर्वश्रेष्ठ सद्ग्रन्थ पर ये भाषण-प्रवचन कैसे कर सकते हैं अर्थात् नहीं कर सकते हैं । कदापि नहीं कर सकते हैं । इसके बावजूद भी यदि करते हैं तो भगवद् जिज्ञासु धर्म प्रेमीजन को अपनी मिथ्या महत्तवाकांक्षा की पूर्ति हेतु गुमराह (भरमाते-भटकाते हुए) करते हुए उनके धन-धर्म दोनों का शोषण करते हैं जो नहीं करना चाहिए । कदापि नहीं करना चाहिए । धर्म के आड़ में धर्म-प्रेमी जनता को भ्रमित करते हुए उनके धन-धर्म दोनों का दोहन-शोषण करने वाला एक व्यापार बना लिया है । इनका सब कुछ व्यापार के अतिरिक्त कुछ नहीं । धर्म के विषय में तो ये कुछ जानते ही नहीं। इन सभी उपर्युक्त तथ्यों को सद्ग्रन्थों के प्रमाणों से प्रमाणित करने को मैं तैयार हूँ । बिल्कुल ही तैयार हूँ, कोई भी मिल-जुल कर जाँच-परख कर सकता है। हमारे यहाँ सत्य की प्रमाणिकता के लिए जाँच-परख की सदा ही छूट रहती है-है भी मगर शान्तिमय ढ़ग से सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणिकता के आधार पर ही आवश्यकता पड़ने पर सर्मपण-शरणागत के आधार पर प्रायौगिकता द्वारा भी, मनमाना नही। 
------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस


सन्त कहलाने वाले आशाराम जी महात्मा भी नहीं, तो परमात्मा कैसे ?
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सद्भावी जिज्ञासु बन्धुओं ! कोई भी किसी को भी सन्त महात्मा कहने से पहले अथवा कहलवाने से पहले सन्त, महात्मा की परिभाषा जानना अत्यावश्यक है । वास्तव में सन्त उसी को कहते हैं जो 'अन्तेन सहित: स: सन्त:' सन्त जो वास्तव में अन्तिम 'सत्य' के साथ हो, अन्तिम 'सत्य' के साथ सदा-सर्वदा ही रह रहा हो-- सन्त वास्तव में वही है । वही 'सत्य' है जो सदा-सर्वदा अपरिवर्तनशील हो, एकरूप हो, जिसमें कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सृष्टि का आदि-अन्त का रहस्य जनाने वाला ही सन्त है यानी सम्पूर्ण (संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमात्मा-परमेश्वर) की सम्पूर्णतया (शिक्षा-स्वाध्याय-अध्यात्म और तत्तवज्ञान) को जनाने वाला यानी सीधे ख़ुदा-गॉड-भगवान् को जनाने-दिखाने-परख-पहचान कराने वाला ही सन्त होता है । ''वासुदेव: सर्वं इति'' जिसका सब कुछ भगवान् ही हो । भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर, पीछे-आगे-- जिस शरीर विशेष का सबकुछ भगवान् ही हो, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म ही हो, वास्तव में वही 'सच्चा सन्त' कहलाने का हकदार है । भगवान् को छोड़कर, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को छोड़कर जिसका कुछ भी संसार में हो, वास्तव में वह सन्त की परिभाषा में नहीं आ सकता है । 

महात्मा उसी को कहते है जो सब कुछ (संसार-शरीर-जीव- ईश्वर-परमेश्वर) को जान-देख कर परमात्मा के आदेश-निर्देश भक्ति-सेवा रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा में लगा हो । वास्तव में महात्मा की स्थिति आत्मा से ऊपर और परमात्मा से नीचे यानी आत्मा और परमात्मा के मध्य की होती है । जिस किसी की स्थिति आत्मा मात्र या आत्मा से भी नीचे की हो वह महात्मा कदापि नहीं कहला सकता । सांसारिक माया-मोह में फँसे हुए जीव को परमात्मा-परमेश्वर से जोड़ना महात्मा का प्रमुख कार्य है । महात्मा कहलाने के लिए योग-साधना अथवा आधयात्मिक क्रियाओं से युक्त होना मात्र ही पर्याप्त नहीं होता, आध्यात्मिक क्रियाओं के साथ-साथ 'तत्तवाज्ञान' से युक्त होना-रहना चाहिए साथ ही साथ वैराग्यवान होते-रहते सेवा रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ भगवद्शरणागत होना रहना-चलना भी अनिवार्यतः आवश्यक होता है । जिसकी जानकारी-मान्यता में आत्मा ही सबकुछ है । आत्मा से नीचे जीव और ऊपर परमात्मा नाम की कोई चीज नही होती । आत्मा ही परमात्मा है । पुन: जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है, ऐसी मान्यता वाले महात्मा ही नहीं है तो भगवदवतारी कैसे हो जायेगें? 

क्या उपरोक्त दोनों पैरा (सन्त, महात्मा) में से कोई भी लक्षण क्या श्री आशाराम जी में है ? नहीं! कदापि नहीं । थोड़ा बहुत शास्त्र अध्ययन करके कथा-प्रवचन करते ही कोई सन्त-महात्मा नही कहलाता ।

ज्ञात हो श्री आशाराम जी धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं से कहते हैं कि आप जिस देवी-देवता को चाहते हो उसी का मन्त्र मुझ से लो और उसका ध्यान करो । बन्धुओं जीवन का लक्ष्य मुक्ति-अमरता की प्राप्ति है किसी भी देवी-देवता का मन्त्र जपने से मुक्ति-अमरता कदापि नहीं मिल सकती । स्वयं देवी-देवता भी मुक्ति-अमरता पाने के लिये मनुष्य का जीवन चाहते हैं । इसके प्रमाण हमारे ग्रन्थों में भरे पड़े हैं । देवी-देवता की आराधना से भोग ही मिल सकता है मुक्ति-अमरता रूपी मोक्ष कभी नहीं मिल सकता । जब ब्रह्मा-इन्द्र-शंकर जी भी मुक्त नही हैं तो और देवी-देवताओं की बात ही कहाँ ? फिर तो वे मुक्ति-अमरता कैसे दे सकते हैं ? नही दे सकते। जो स्वयं मुक्त नहीं है वह दूसरों को मुक्ति-अमरता कैसे दे सकता है ? नहीं दे सकता! कदापि नहीं दे सकता !! 

बन्धुओं ! चूरन, अगरबत्ती बेचना, साबुन आदि-आदि सामग्री बनवा कर बेचना यानी अर्थ अर्जन के लिए कथा-प्रवचन को माध्यम नहीं बनाना चाहिए क्योंकि कथा-प्रवचन ख़ुदा-गॉड-भगवान् की प्राप्ति तथा महापुरुष बनने के प्रति उत्प्रेरित करने का माध्यम है । अर्थ अर्जन करना ही हो तो दुनिया में बहुत से धन्धे बने हुए हैं । अर्थ अर्जन करने के लिए कभी भी कथा-प्रवचन जैसे पवित्र विधान को अपवित्र नहीं बनाना चाहिए-कलंकित नहीं करना चाहिए। 

परमेश्वर की जानकारी तो बहुत दूर की बात है श्री आशाराम जी को जीव की ही जानकारी नहीं है तो परमेश्वर के विषय में ऊल-जलूल बातें करना मूढ़ता नहीं तो और क्या है ? जीव की जानकारी के पश्चात् ही मालूम पड़ता है कि वास्तव में यह संसार सहित शरीर बिल्कुल ही झूठ है । 'जगन्मिथ्या' झूठा जगत है तभी वैराग्य खिलता है और कोई व्यक्ति सांसारिक से धार्मिक हो सकता है। जीव की जानकारी धर्म का पहला सोपान है अर्थात् धर्म यहीं से शुरु होता है । जब जीव की ही जानकारी नहीं है तो कैसे कोई धार्मिक कहला सकता है ? किसी विषय में जानकारी नहीं होना बुरी बात नहीं है बल्कि जानकारी नहीं होने के पश्चात् भी उस विषय में बोलना जानकार बनना मूर्खता ही नहीं महामूर्खता है । 

आप सभी श्री आशाराम जी के शिष्य से हमारा कहना है कि आप ने गुरु किसी लिए किया था क्या आप गुरु के यहा गुरुजी के भौतिक संसाधन देखने गये थे ? क्या आप गुरु जी के यहा महल अट्टालिकायें देखने गये थे ? या आप गुरु जी के यहा हजारो-लाखों के भीड़ देखने गये थे ? हमारे समझ में कोई भी जिज्ञासु-श्रध्दालु गुरु के यहा ज्ञान के लिए अपना उध्दार-कल्याण के लिए जाता है न कि भौतिक चकाचौंध देखने गुरुजी के यहा जाता है । जिस गुरु जी के ज्ञान में आपने जीव-आत्मा-परमात्मा को नहीं जाना, जिस ज्ञान से आपको मुक्ति-अमरता का बोधा नहीं हुआ वह गुरु का ज्ञान कैसा ? फिर उस ज्ञान का क्या प्रयोजन ? आध-अधूरा झुठा ज्ञान बाले गुरु से क्या आपका उध्दार-कल्याण होगा सम्भव है। 

"झूठा गुरु अझगर भए । चेला सब चीटी भए नोची नोची के खाए ॥"

कई झूठे गुरु में फँ सकर ऐसी स्थित न हो जाए इसीलिए सच्चे गुरु का खोज करके अपने को सच्चे सद्गुरु के ज्ञान-भक्ति से जोड़े तभी उध्दार-कल्याण सम्भव है ।

सच्चे गुरु का पहचान ऐसे करें
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सच्चा सद्गुरु वह है जो ज्ञान 'तत्तवज्ञान' दे, तत्तवज्ञान वह ज्ञान है जिसमें संसार-शरीर-जीव आत्मा और परमात्मा का अगल-अलग बातचीत सहित साक्षात् दर्शन व मुक्ति अमरता का साक्षात् बोध तत्काल प्राप्त करा दें । ऐसे ज्ञानदाता को ही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु भगवदावतार कहते हैं । जिस गुरु के ज्ञान में भगवान् न मिले मुक्ति-अमरता का बोध न हो वह सद्गुरु कैसा?
आप सभी से गुरुजनों के शिष्य समाज से मेरा यही निवेदन है कि आप अपने गुरु से तत्तवज्ञान मांगे जीव-आत्मा-परमात्मा का साक्षात् दर्शन मांगे यदि आपके गुरु जी तत्तवज्ञान देने से इन्कार करें तो आप समझ जाईये कि आपका गुरु पूर्ण सम्पूर्ण वाला सच्चा नहीं है फिर उस गुरु से आपका उध्दार कल्याण कदापि सम्भव ही नहीं है । सच्चे सद्गुरु का खोज करें तत्पश्चात् अपने को उसके भक्ति-सेवा में जोडें तभी इस जीवन का उध्दार-कल्याण सम्भव है तब ही मानव जीवन सफल-सार्थक होगा । 

गुरु करें दस पांचा जब तक मिलें न साचा ।
शेष सब भगवत् कृपा 

कमल जी 
परमतत्तवम् धाम आश्रम
बी-6, लिवर्टी कालोनी,
सर्वोदय नगर, लखनऊ-16

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